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समाज के लिए, समाज के द्वारा, समाज का शासन

Nature Focused Development : प्रकृति केंद्रित विकास

समाज सत्ता के उद्देश्य:

Nature Focused Development : प्रकृति केंद्रित विकास

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Nature Focused Development

प्रकृति केंद्रित विकास (Nature Focused Development) के इन तीन शब्दों पर यदि ध्यान दें, तो स्पष्ट हो जाता है कि विकास होना है, परंतु प्रकृति को मूल में रखते हुए। यहां विकास का विशेषण है “प्रकृति केंद्रित”। अब विकास के नाम पर केवल मानव केंद्रित विकास और प्रकृति का विनाश करने की अनुमति किसी को भी नहीं दी जा सकती।

परंतु सबसे पहले यह जानना आवश्यक है कि वर्तमान शासन (सरकार) और आम नागरिकों की दृष्टि में अब तक विकास किसे समझा जाता रहा है। तो इसका सरल सा उत्तर यह है कि विकास को इस रूप में समझा जाता रहा है जैसे किसी चीज में वृद्धि हो जाए।

अब यहां समझना आवश्यक है कि यदि कोई दुबला-पतला व्यक्ति है और उसका वजन कुछ बढ़ जाए, वह कुछ मोटा हो जाए, उसकी ताकत कुछ और बढ़ जाए तो वह विकास माना जाएगा। परंतु यदि वही व्यक्ति बहुत अधिक मोटा हो जाए तो? यदि उसका पैर मोटा होकर हाथी-पांव (फाइलेरिया) की तरह फूल जाए तो? क्या इसे उस व्यक्ति का विकास कहा जाएगा? नहीं, बल्कि यह उस व्यक्ति के लिए एक प्रकार से विनाशकारी होगा।

इसी प्रकार अब तक विकास के नाम पर धनाढ्य लोगों सहित आम नागरिकों की सुविधाओं को बढ़ाने, उनकी आमदनी बढ़ाने जैसे काम के लिए प्रकृति के साथ निरंतर खिलवाड़ किया गया, प्रकृति का दोहन किया गया और प्रकृति का विनाश किया गया।

What Is Nature Focused Development

जब हम ‘विकास’ की बात करते हैं, तो हमारा अभिप्राय देश से और देशों से होता है। विकास शब्द से हमारा ताल्लुक कुछ राष्ट्रीय, सामाजिक और मानवीय विकास से होगा। अब तक विकास के मापक शब्दों के रूप में हमने कई शब्द सुन रखे हैं। जैसे पर कैपिटा इनकम, ह्यूमन डेवलपमेंट इंडेक्स, गरीबी रेखा आदि आदि।

हमने ये शब्द दशकों से सुने हैं और सरकारों को इन्हीं आधार पर अब तक काम करते, चलते हुए देख रहे हैं। इन शब्दों को तथाकथित विकसित देशों ने अपने अनुरूप विकसित किया और प्रचारित-प्रसारित किया। विकासशील देशों ने इन्हीं के आधार पर, अपने देश के पैमानों के बारे में बिना कुछ सोचे समझे, इसे स्वीकार कर लिया।

परिणाम ये रहा कि विकसित दिखने की राह में चलते हुए भुखमरी, बेरोजगारी, हिंसा, लूट, अपहरण, बलात्कार, फिर हथियारवाद और सरकारवाद के रूप में नया विकास सामने आ गया। विकास, यानी सुविधा प्राप्त करना और जीवन उसी सुविधा को बढ़ाते हुए बिता देना, समाप्त कर देना, ऐसी मनोदशा विकसित कर दी गई।

फिर सत्ता से पैसा और पैसों से सत्ता प्राप्ति भी इसी बात का परिणाम है। जैसे-जैसे विकास बढ़ा, वैसे-वैसे महारोग भी बढ़ गए। पैसे वाला और अधिक पैसा प्राप्ति की तरफ बढ़ा, तो गरीब और भी अधिक गरीब होते गए। पूरा विश्व ‘खरीदो और बेचो’ की मानसिकता की ओर बढ़ता चला गया है।

अब जाकर समझ में आया कि मात्र शरीर को स्वस्थ रखने और केवल शरीर के सुख के लिए सुविधा बढ़ाने से ही काम नहीं चलेगा क्योंकि शरीर और मन का रिश्ता है। और शरीर केवल शरीर ही नहीं, बल्कि मन, बुद्धि और आत्मा का समुच्चय है। इसीलिए मनुष्य खुशी, दुःख और तकलीफ के भाव भी व्यक्त करता है।

Nature Focused Development – Our Motto

अधिक विचार करने पर यह बात भी समझ आती है कि यदि शरीर को स्वस्थ रखना है, तो श्रम की आवश्यकता है। अस्वस्थ व्यक्ति को भी व्यायाम की सलाह ही दी जाती है, ताकि वह जल्दी स्वस्थ हो। यदि श्रम नहीं रहा, तो रोग बढ़ेंगे। यदि परिश्रम का उचित फल नहीं मिला, तो भी समस्या खड़ी होगी।

ऐसे में हम जितना मनुष्यत्व और प्रकृति के करीब होकर जीएंगे, उतना ही अच्छे प्रकार का जीवन स्तर पा सकेंगे। इसलिए समत्व में जीवन जीना ही मनुष्यता है। फिर विकास के कई पहलू हैं। जैसे यदि केवल खाने को और पहनने को मिल गया, तो क्या विकास हो गया? फिर बाकी चीजें भी तो चाहिए। शिक्षा, संस्कार और अपनी चाहतों को पूरा करने के भी तो अवसर चाहिए।

इसलिए विकास का दूसरा पहलू भी है। विकास का अर्थ केवल भौतिक समृद्धि नहीं हो सकता। समृद्धि के साथ-साथ यदि आतंरिक विकास नहीं हुए, तो उसे विकास नहीं कहा जा सकता। विकास के साथ-साथ हमें अपने जीवन में भी समाधान चाहिए।

अतः सुख की परिभाषा केवल शारीरिक नहीं हो सकती। ऐसी ही स्थिति समाज और देशों की भी होती है। जिसे हम आतंरिक विकास कहते हैं, उसे ही सामान्य शब्दों में संस्कृति कहा जाता है। यानी बाहरी विकास का अर्थ है ‘समृद्धि’ और आतंरिक विकास का अर्थ है ‘संस्कृति’।

Nature Focused Development Of Samaaj Sattaa

अब ये बातें सच हैं, तो फिर ‘समृद्धि’ यानी ‘भौतिक’ और ‘संस्कृति’ यानी ‘प्रकृति से ऊंचा’ होना है। एक उदाहरण से हमें समझना होगा कि खाना खा लेना प्रकृति है। छीन कर खाना विकृति है, लेकिन बांटकर खाना ही संस्कृति है। जब कहा जाता है कि भारत की अपनी संस्कृति है, सभ्यता है, तो वहां इन्हीं अर्थों में हमें अपनी पहचान को समझना होगा।

यही सनातन संस्कृति भारत के वेदों ने और समस्त ऋषि-मुनियों ने हमें प्रदान की है। इसी के आगे हम “वसुधैव कुटुंबकम” की बात समझ सकते हैं। इसी आधार पर भारतीय समाज की स्थापना है। इन्हीं आधारों पर धर्म, अर्थ आदि की रचना हुई है। इन्हीं तत्वों से राजनीति और समाज नीति बनी है।

इन्हीं बातों से भारत का परिवार चलता है, न कि राजनीति परिवार चलाती है। मनुष्य यदि देवता की तरह हो जाए और समाज हित में कार्य करे, तो इसे विकास कहा जाएगा। परंतु यदि मनुष्य केवल अपने लिए करे, किसी का भला न करे और फिर मौका मिले तो नष्ट कर दे, तो इसे विकास नहीं, अपितु विकृति ही कहा जाएगा।

दरअसल विकास के संबंध में जो पश्चिमी सोच है, वह शोषणमूलक, विषमतामूलक, अमानवीय और अप्राकृतिक है। मानव की सुविधाओं के लिए अधिक से अधिक उत्पादन और फिर उसका उपभोग ही विकास माना जाने लगा है। भारत के “संतोष ही परम सुख है” की बात को भ्रांति बताकर प्रचारित किया गया।

करोड़ों वर्षों के भारत के रहन-सहन और विचार-व्यवहार के तरीकों को गलत सिद्ध करने की होड़-सी मच गई। अपने ही जीवन के प्रति नफरत का भाव पैदा करने के षड्यंत्र में देश की चुनी हुई सरकारों ने भी पूरा साथ दिया। ऐसा क्यों है?

Nature Focused Development Theory

हर बात के पीछे कोई न कोई कारण अवश्य होता है। इन सब बातों की रचना के कारण समाज में पॉलिटिक्स और इकोनॉमिक्स की उत्पत्ति हुई। तबाही की उत्पत्ति हुई। अन्यों के विनाश के विचार की उत्पत्ति हुई। मानवता और प्रकृति के विनाश की उत्पत्ति हुई। हिरोशिमा में गिराया गया ऐटम बम इसी तथाकथित ‘विकास’ का परिचायक है।

बड़े विकास हुए, तो अब थोक में मरने वालों की संख्या भी बढ़ गई। एके 47 और एके 56 का भी आविष्कार हुआ। इनका उपयोग आत्मरक्षा की तुलना में दूसरों की तबाही में अधिक होने लगा। यह भी बड़ा तथाकथित ‘विकास’ है। इन बातों का अर्थ है कि जितनी तेज मौत और जितनी बड़ी संख्या में मौत, उतना बड़ा ‘विकास’। यानी आज के समय में मानव जाति की समाप्ति की दिशा में बढ़ता कदम ही ‘विकास’ समझा जाने लगा।

यह सब कुछ मानवीय संवेदनाओं के अभाव के कारण ही हो सका। इसलिए जीव जगत के साथ-साथ जगदीश के तत्व को नकारना इस पूरी समस्या का मूल कारण है। प्रकृति से ऊपर होने का यह अर्थ नहीं है कि सब कुछ दुनिया में केवल मनुष्य के लिए ही बना या बनी है।

मनुष्य इस प्रकृति का नियंता नहीं है। जितना इस प्रकृति से ले, उससे अधिक वापस लौटाने का उत्तरदायित्व है मनुष्य का। मनुष्य ने यह धरती नहीं बनाई है। न ही ये पहाड़, ये जंगल, ये नदियां और ये झरने। ये सब प्राकृतिक हैं। तो फिर सारी सृष्टि ही मनुष्य के लिए ऐशगाह है, ऐसा विचार ही अप्राकृतिक है।

Nature Focused Development Strategy

अपनी सुविधा के लिए जंगल को काटकर खत्म कर दिया जाए, नदियां मोड़, काट दी जाएं, पक्षियों का कोई स्थान ही न बचे, उनके वंश समाप्त हो जाएं, क्या समस्या है? ऐसी मानसिकता ही अप्राकृतिक है। ऐसे में सृष्टि से परस्परानुकूलता का भाव ही समाप्त हो जाएगा।

इसलिए संतुलन की आवश्यकता है। यही भारतीय जीवन शैली है। इसीलिए कहा गया है कि “साईं इतना दीजिए जामे कुटुम समाय, मैं भी भूखा ना रहूं, साधु न भूखा जाए”। कितना शुद्ध और महान दर्शन है भारतीय संस्कृति का, समता का, बराबरी का।

भारत में यदि गऊ को माता कहा जाता है, तो सर्वगुण संपन्नता के कारण। भारत में तो घर की माता, धरती माता और गऊ माता का ही चक्र है। यही देवी चक्र तो घर-घर में पूज्य है। इसीलिए प्रकृति में हर एक का स्थान है, यह भाव ही नहीं रहा, तो कैसा विकास?

समृद्धि जबतक संस्कृति की सेज में नहीं आएगी, तब तक उसे समृद्धि नहीं माना जा सकता। प्रकृति में हर एक का अपना बराबर अधिकार और हिस्सा है। कोई किसी का अधिकार न छीने। सभी को जीने का समान अधिकार है, इसीलिए ‘अब जियो और जीने दो’ के स्थान पर हमारा नारा होना चाहिए – “साथ जीयो, साथ चलो, साथ बढ़ो”।

अपने इन्हीं विचारों के साथ समाज सत्ता ने केवल मानव केंद्रित विकास की अवधारणा को नकारते हुए मानव और प्रकृति केंद्रित विकास की अवधारणा पर बल दिया है। यदि प्रकृति और पर्यावरण को केंद्र में रखते हुए विकास का कार्य किया जाएगा, तो ‘जल, जंगल, जमीन, जीव और जगदीश’ के आशीर्वाद के साथ मानव और जीव जगत भी लगातार फलेगा-फूलेगा और हमारी संस्कृति संपूर्ण विश्व के लिए वरदान साबित होगी।

यदि संस्कृति आधारित भारत का विकास हुआ, तो हम गर्व से कह सकेंगे कि हमने पुनः राम-राज्य प्राप्त कर लिया है। इसलिए हमारा संगठन मानव केंद्रित विकास कि अवधारणा को नकारते हुए प्रकृति और भारतीय संस्कृति आधारित विकास कि परिकल्पना के आधार पर “प्रकृति केंद्रित विकास” को स्वीकार करता है।


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